Wednesday, February 03, 2016

के हद से गुज़रने को जी चाहता है

शरारों पे चलने को जी चाहता है
के हद से गुज़रने को जी चाहता है

मेरा आज चिकनी सी राहों पे चलकर
क़सम से फिसलने को जी चाहता है

मुझे सर्द आहों की है याद आती
मेरा अब पिघलने को जी चाहता है

क़शिश खींचती है मुझे घाटियों की
के फिर से उतरने को जी चाहता है

तेरे शोख़ दामन में मानिंदे ख़ुश्बू
मेरी जाँ विखरने को जी चाहता है

ग़रज़ के जबीं का न बल हो नुमाया
मेरा भी सँवरने को जी चाहता है

ग़ज़ल सुनके ग़ाफ़िल की बोले तो कोई
के फिर यार सुनने को जी चाहता है

-‘ग़ाफ़िल’

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