Saturday, January 30, 2016

पसे मुद्दत मेरे क़ातिल ने मुझको फिर बुलाया है

वो मेरे प्यार के जज़्बे को यूँ भी आजमाया है
मुख़ातिब भी रहा है पर न कोई जुल्म ढाया है

बड़ा छुपता रहा है बादलों का साथ पा करके
मेरी चाहत ही थी जो चाँद अब पूरा नुमाया है

हटो! दामन मेरा छोड़ो! मुझे जाना है, जाने दो!
पसे मुद्दत मेरे क़ातिल ने मुझको फिर बुलाया है

चलो है मर्तबा क़ायम यूँ मेरी मैफ़रोशी का
मेरा क़ातिल डुबाकर मै में ही खंज़र जो लाया  है

गो है ये मस्‌अला छोटा मगर आसाँ नहीं है के
कोई ख़ुश्बू को कब तक बन्द करके रोक पाया है

न कुछ भी यूँ है जो के हो नहीं सकता इशारों से
इशारों ने भले चंगे को भी ग़ाफ़िल बनाया है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, January 28, 2016

कुछ जतन कीजिए उस घड़ी के लिए

मौत भी आए तो ज़िन्दगी के लिए
पर किया आपने क्या किसी के लिए

आपसे हिज़्र बर्दाश्त होती नहीं
फिर क्या उम्मीद हो आशिक़ी के लिए

होगा इक दिन यक़ीनन विसाले सनम
कुछ जतन कीजिए उस घड़ी के लिए

आदमीयत को पावों तले रौंदता
हर कोई जा रहा बन्दगी के लिए

यार ग़ाफ़िल बड़े रिस्क का काम है
शा’इरी और भी हर किसी के लिए

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 27, 2016

उन हवाओं का भला मैं क्‍या करूँ

गर न हो उम्मीद तेरे वस्ल की
उस जगह जाऊँ नहीं मैं भूलकर
उन हवाओं का भला मैं क्‍या करूँ
जो न ख़ुश्‍बू से तेरी हों तर-ब-तर

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 25, 2016

होने लगी है ख़ुद से अदावत नयी नयी

मिलने लगी है मुझको जो शुह्रत नयी नयी
होने लगी है ख़ुद से अदावत नयी नयी

चाहा था मैंने तुझको मगर क्या ख़बर थी यार
बन ठन गले लगेगी मुसीबत नयी नयी

ताने सहा हूँ वैसे बहुत ज़िन्दगी में पर
तानों में तेरे यार है ज़िल्लत नयी नयी

कुछ लोग तोड़ फोड़ के उस्ताद हो गये
मेरी हुई जो तुझसे मुहब्बत नयी नयी

मैं ख़ुश हूँ इसलिए के तेरा दिल चुरा लिया
मुझपर लगी है आज ये तुह्मत नयी नयी

ग़ाफ़िल को और चाहिए भी क्या नसीब से
इसके सिवा के आदते उल्फ़त नयी नयी

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, January 24, 2016

यह भी खाली मकान है शायद

मेरी आफ़त में जान है शायद
उसका बीता ईमान है शायद

क्या तेरे दिल में आशियाँ कर लूँ
यह भी खाली मकान है शायद

उसकी पकवान लग रही फ़ीकी
उसकी ऊँची दुकान है शायद

इश्क़ सामान है तिज़ारत का
उसको ऐसा ग़ुमान है शायद

उड़ रही धूल जो, इसी रस्ते
कोई गुज़रा जवान है शायद

जाम है रोड इश्क़ वालों से
हुस्न का ये सीवान है शायद

अर्जमंद हो गया ये ग़ाफ़िल भी
दिल तेरा मिह्रबान है शायद

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, January 23, 2016

वो किसी से टूटकर जब प्यार करके आ गये

एक ग़ज़ल यह-

मतला-
आज फिर वो इश्क़ का इज़हार करके आ गये
ज़िन्दगी इस क़द्र भी दुश्वार करके आ गये

अश्आर-
यूँ नहीं वो थे मगर कुछ तो हुआ जो आज दिल
नज़्रे आतिश शौक से सरकार करके आ गये

वो गये थे इश्क़ के बीमार का करने इलाज़
और अपने-आपको बीमार करके आ गये

जो मेरी तक़्दीर थी मंज़ूर थी मुझको मगर
वो मेरी जानिब से क्यूँ इंकार करके आ गये

क्या पता के यूँ था छाया कौन सा उन पर सुरूर
जो रक़ीबों से नज़र दो चार करके आ गये

आईना चेहरे की रौनक़ देखकर हैरान था
वो किसी से टूटकर जब प्यार करके आ गये

इसी ज़मीन पर ग़ज़ल के मिजाज़ से ज़रा हटकर बाद में बना एक शे’र-
चाँद की रोटी बना जज़्बा जलाया सेंक ली
और समझे देश का उद्धार करके आ गये

मक़्ता-
शर्म ग़ाफ़िल जी ज़रा भी तो उन्हें आई नहीं
हुस्न को रुस्वा सरे बाज़ार करके आ गये

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 18, 2016

प्यास वैसी नही अब रही क्या करें

जाने क्यूँ जग गयी है ख़ुदी, क्या करें
प्यास वैसी नही अब रही क्या करें

हम परेशान हैं बाद मुद्दत जो वो
बात की भी तो की बेतुकी, क्या करें

कोई हमको बताएगा भी या नहीं
फेंक दें या रखें ये हँसी, क्या करें

ख़ार खाए हुए हों जहाँ सबके सब
फिर वहाँ हम भला शा’इरी क्या करें

गो के शिक़्वा नहीं आपसे है मगर
यार हम भी तो हैं आदमी, क्या करें

गर्म यूँ हैं हमारे ये अश्आर जो
आज ही आग जी में लगी, क्या करें

कोई सैलाब ग़ाफ़िल सा है आ रहा
सकपकाई हुई है नदी, क्या करें

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 11, 2016

शे’र हर एक गुलाबों सा खिला होता है

क्या ज़रर होता है और कैसा नफ़ा होता है
दिल लगाया है फ़क़त ये ही पता होता है

कर दिया मैंने भी आग़ाज़ मगर बतलाओ
प्यार के खेल में क्या और भला होता है

तब तो महसूस करे मेरी ये सीने की जलन
जब मेरा यार रक़ीबों से अदा होता है

मुझको रास आ तो रहा इश्क़ मगर जाने क्यूँ
लोग कहते हैं के अंज़ाम बुरा होता है

क्या ग़ज़ब है के हँसी ही है मसख़रे का नसीब
ग़म जता दे ये कहाँ उसको बदा होता है

होगा ऐसा ही, कहें लोग जो ग़ाफ़िल तेरा
शे’र हर एक गुलाबों सा खिला होता है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, January 09, 2016

कुछ ख़ास गवाँ बैठे

कुछ ख़ास गवाँ बैठे गोया है सफ़र ज़ारी
अल्लाह करे हम हों मंज़िल की पनाहों में
सोचो तो ज़रा के अब क्यूँ सह्‌म से जाते हैं
आते ही नज़ारे सब इंसान के राहों में

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 08, 2016

हमारा दिल वो उछालते हैं

ग़ज़ब है पैरों पे रखके देखो
हमारा दिल वो उछालते हैं
हम उनके गोया ग़मों के एवज़
में अपनी हर बाज़ी हारते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, January 05, 2016

पढ़ करके इनको चाहे कोई हँसे या रोए

हैं आज के यही सब मेरे गढ़े नमूने
पढ़ करके इनको चाहे कोई हँसे या रोए

ये सर्दियों का मौसम फ़ुर्क़त की लम्बी रातें
कटतीं नहीं हैं गर तो मेरी ग़ज़ल ही गा ले!

बादल गरज रहे हैं बिजली चमक रही है
बारिश शुरू हो इससे पहले ही घर तो कर ले!

भीगी हुई ये बिल्ली कैसे रही है गुर्रा
है ख़ैरियत इसी में कोई इसे भगा दे

ये जिन्न इश्क़ वाला है शोख़ और नाज़ुक
जो चाहे जब भी इसको बोतल में बंद कर ले

आए जनाब तब जब बाज़ार उठ चुकी है
वो मोल कर हैं निकले हैं जब दीवाले

क्या सोचता है ग़ाफ़िल के ये है इक करिश्मा
ज़र्रे यहाँ सभी तो हैं ठोकरों पे पलते

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 04, 2016

उसी पल वाक़ई तुम जीत की ख़ुशियाँ मनाओगे

मुहब्बत जंग है ऐसी के जिस पल हार जाओगे
उसी पल वाक़ई तुम जीत की ख़ुशियाँ मनाओगे

तुम्हारा मर्तबा क़ायम रहे ये है दुआ मेरी
मगर सच यह भी है के तुम मुझे ही भूल जाओगे

मेरे दर पे न आना है न आओ पर कहो के क्या
तसव्वुर में मेरे आने से ख़ुद को रोक पाओगे

मेरा दामन है कोरा पर मुझे ऐसा लगे है के
जो छूटे ही नहीं वह दाग़ तुम उस पर लगाओगे

मुझे ग़ाफ़िल कहो, पागल या के अलमस्त दीवाना
मैं कबका बन चुका यह सब मुझे अब क्या बनाओगे

लिखा हूँ शे’र दो इक पर मुसन्निफ़ मत समझ लेना
न माने तो मेरे क़िर्दार से धोखा ही खाओगे

बड़ी गुस्ताख़ नज़रें हैं ये ता’ज़ीरात क्या जानें
इन्हें लड़ने से ग़ाफ़िल जी भला क्या रोक पाओगे

(मुसन्निफ़=पद्यकार, ता’ज़ीरात=दण्ड संहिता)

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, January 03, 2016

मुझको न गिला कोई उसको न शिक़ायत है

इस ओर सलासत है उस ओर नज़ाक़त है
फिर भी है क़शिश कुछ जो आपस में मुहब्बत है

होता है कहाँ ऐसा पर इश्क़ में है अपने
मुझको न गिला कोई उसको न शिक़ायत है

उल्फ़त का भला कैसै इज़हार करें उससे
डर है न चली जाए थोड़ी भी जो इज़्ज़त है

चाहे तो बदल डाले हाथों की लकीरों को
तक़्दीर का रोना पर उसकी भी तो आदत है

हर काम सलीके से हो जाए तो क्या कहने
धोखे में नहीं रहना ये रस्मे मुहब्बत है

ग़ाफ़िल के लिए दुनिया दो हर्फ़ ज़रा हँसकर
बोलेगी नहीं हरगिज़ गोया के ज़ुरूरत है

(सलासत=सरलता)

-‘ग़ाफ़िल’