Sunday, November 29, 2015

लगे क्यूँ मगर हम अकेले बहुत हैं

अगर देखिएगा तो चेहरे बहुत हैं
लगे क्यूँ मगर हम अकेले बहुत हैं

चलो इश्क़ की राह में चलके हमको
न मंज़िल मिली तो भी पाये बहुत हैं

ये माना के है ख़ूबसूरत जवानी
मगर पा इसी में फिसलते बहुत हैं

मज़ेदार है ज़िन्दगी क्यूँ के इससे
न हासिल हो कुछ पर तमाशे बहुत हैं

ये सच है के उल्फ़त निभाते हुए हम
उजालों में ही यार भटके बहुत हैं

रहे इश्क़ वैसे भी पुरख़ार है और
गज़ब यह के पावों में छाले बहुत हैं

उन्हें बैर था या मुसाफ़ात हमसे
वो जानिब हमारी जो आए बहुत हैं

भला ये क्या तुह्मत के जग जग के ता'शब
न जाने क्या ग़ाफ़िल जी लिखते बहुत हैं

मुसाफ़ात=दोस्‍ती

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-12-2015) को "कैसे उतरें पार?" (चर्चा अंक-2178) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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