Saturday, August 01, 2015

अब किताबों में पड़े ख़त मुँह चिढ़ाने लग गए

फिर रक़ीबों को मिरे यूँ मुँह लगाने लग गए
आप फिर से क्यूँ मुझे ही आज़माने लग गए

क्या पता है आपको मैंने किए क्या क्या जतन
आपको अपना बनाने में ज़माने लग गए

एक अर्सा हो गया आए हुए ख़त आपका
अब किताबों में पड़े ख़त मुँह चिढ़ाने लग गए

आप दुश्मन के यहाँ जाने लगे हैं आदतन
यूँ मुझे बर्बादियों के ख़्वाब आने लग गए

आपकी इस बेरुख़ी ने बेतरह डाला असर
अब मेरी आँखों में तारे झिलमिलाने लग गए

मेरे अश्कों में थी ग़ैरत गिरके कहलाए गुहर
आपके पल्लू में जा वाज़िब ठिकाने लग गए

इस तरह से इश्क़ का अपने हुआ है हश्र क्यूँ
आपसे पूछा तो अपना सर खुजाने लग गए

क्या करे ग़ाफ़िल भला यूँ राह कुछ सूझे नहीं
रहनुमा थे जो कभी अब बरगलाने लग गए

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02-08-2015) को "आशाएँ विश्वास जगाती" {चर्चा अंक-2055} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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